यह वक्त हमें बचपन से विदा कर बड़ा कर चुका था -hindi poem of nature

“हमारी उम्र हर चीज को देखने और समझने के नजरिए को बदल चुका था,
यह वक्त हमें बचपन से विदा कर बड़ा कर चुका था”

गुजरता यह वक्त न जाने कब इस मोड़ पर ला खड़ा कर दिया कि अपने बारे में सोचने के साथ-साथ हम दूसरों के बारे में भी सोचने लगे वक्त शायद हमें जिम्मेदारी का एहसास करा रहा था कि जिंदगी जीने के साथ-साथ जिम्मेदारी भी निभानी पड़ती है पता ही नहीं चला कि हम इतने बड़े कब हो गए एक वह दिन जब हम अपने बारे में ही सही से नहीं सोच पाते थे सही गलत क्या है इसकी फिक्र किए बिना बस हम मस्त मौला बंद अपनी जिंदगी को जीते थे और आज क्या सही क्या गलत इन्हें समझने में लगे रहते हैं!

hindi poem of nature
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कितने प्यारे दिन थे वह सुबह की किरण हमें एक नया हौसला देती कि आज का यह दिन हम कैसे जियेंगे और आज आज यह सोचते हैं कि यह दिन कैसे काटेंगे पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है वक्त तो वहीं पर है पर शायद हम गुजर रहे हैं सब कुछ वही तो है वह शहर उस हर एक चीजों का वहीं पर होना ये बता रहा है की शायद हम आगे बढ़ रहे हैं बहुत कुछ पाने की कोशिश में हमारे पास जो है उसे भी खो रहे हैं शायद इसलिए कहीं हम पीछे ना रह जाए जो दोस्त कभी एक अच्छे दोस्त रहा करते थे उन्हीं दोस्तों से हम आगे पीछे होने की तुलना करने लगते हैं!

 

 

बड़ा अजीब था यह सब मैं वहां खड़ा था जहां कभी बच्चों के साथ खेला करते थे वह शांत नदी जिसके सामने हमारा मकान था सुबह जब सूरज निकलता तो मानो नदी से वह भी नहा कर निकल रहा हो और लाल चादर ओढ़े हवाओं में उड़ने की तैयारी कर रहा हूं पंछी ऐसे उड़ते मानो नदी से निकले सूरज को छूने की कोशिश कर रहे हो वह नदी किनारे खड़ा पीपल का पेड़ आज भी तेज हवाओं में उसके पत्ते दोपहर की खामोशी को सताने की कोशिश कर रहे थे दोपहर में होती धूप में नदी का पानी सूरज की किरण से ऐसे चमकता है मानो आईना दिखाने की कोशिश कर रहा हो शाम होते ही सब अपने घर से निकल नदी के किनारे बैठते हैं कुछ बच्चे आज भी बगल में रह रही बुढ़िया से शाम की हो रही आरती से प्रसाद लेकर गलियों में खेलने को निकलते हैं कभी लड़ते हैं कभी रोते हैं और फिर कच्ची पक्की का गुस्सा कर मान जाते हैं शाम होते ही छत के पीछे वह नीम का पेड़ आज भी वहीं पर खड़ा है छत से उड़ाते कुछ बच्चों की पतंग को नीम का पेड़ आज भी पकड़ लिया करता है वह सीढ़ियों पर चढ़ते उतरते खटखट की आवाज खामोश सन्नाटे को गुदगुदाने की कोशिश करता है यह सारी चीजें मुझे खेलने को बुला रही थी अपने पास बैठने को कह रही थी शायद कुछ लोग बदलते हैं पर चीजें सब वही है शायद वक्त वही है पर हम आगे आ गए हैं वही सुबह वही शाम वही खेल वही प्यार वही लड़ना वही झगड़ना आज भी होता है वह सब वही है पर शायद हम बड़े हो चुके हैं इतने बड़े की चाह कर भी उनसे नहीं मिल सकते जिस तरह कभी बचपन में मिला करते थे!

 

“हमारी उम्र हर चीज को देखने और समझने के नजरिए को बदल चुका था, यह वक्त हमें बचपन से विदा कर बड़ा कर चुका था”
शायद गुजरता यह वक्त नहीं हम गुजरते हैं और हम इतने बड़े हो गए कि कभी खुद का पता नहीं था कि अब क्या करेंगे और आज सारी दुनिया के बारे में सोचते हैं नए सपने नए अरमा सजाते हैं जो पास है उसे क्यों हम भूल जाते हैं :-
रुलाती है यादें हंसाती हैं यादें बीते पलों से मिलाती हैं यादें
रहता हूं जब भी तन्हाई के आलम में मुझे याद आती है
बचपन की यादें उलझना जो चाहा था जो खेलों के रंग में
उन रंगों से मिलने को उकसाती है यादें
सजाए जो ख्वाब कभी मिट्टी के घरों में
उन ख्वाबों की हकीकत बताती हैं यादें
बचपन के खेलों में लगी चोट जिस्म पर
उन जख्मों को मरहम बन सहलाती  हैं यादें
जिस खता पर कभी पछता ना सके हम
उन खाता पर अफसोस कराती हैं यादें
देखे जो ख्वाब बचपन के आलम में
उन ख्वाबों से मिलने को सताती हैं यादें
रहता हूं जब भी तन्हाई के आलम में
मुझे याद आती है बचपन की यादें
by Vivek Singh
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