अतिथि देवता समान है – hindi story book
एक बार की बात है एक महात्मा जिनका नाम देशबंधु चितरंजन उनके पिता जो की एक गाँव में रह कर अपना जीवन आपन कर रहे थे उनका कहना था की घर पर आये अतिथि का सम्मान और सत्कार करना श्रेष्ठ धर्म है ! अतिथि देवता समान होता है ये भारतीय संस्कृति की सदियों से परम्परा रही है ! प्राचीन ग्रंथो में अतिथि का सम्मान और सत्कार करने के साथ -साथ प्राणों को समर्पित करने की कई प्रेरक कहानियाँ सुनने को मिलती है चितरंजन के पिता जी के लिए माता पिता और गुरु के अलावा अतिथि भी भगवान के समान होते थे ! यही कारण था की चितरंजन के पिता जी ने अपने घर के सभी सदस्यों को अतिथि का सम्मान और सत्कार करने का आदेश दे रखा था उनका कहना था की घर पर आया हुआ अथिति किसी भी मौसम या समय आये चाहे वो दिन हो या रात उनका अनादर नहीं होना चाहिए !
चितरंजन के पिता जी अपने परिवार पर पूर्ण विश्वाश करते थे की उनकी कही हुयी बात को उनका परिवार अच्छे से पालन करता होगा ! परन्तु एक बार ठंड के मौसम में बहुत ही भीषड़ ठंड पर रही थी , इतनी ठंड होता देख चितरंजन के पिता जी के मन में शंका उत्पन्न हुयी की इतनी भीषड़ ठंड में अगर मेरे द्वार पर कोई अतिथि आता है तो क्या मेरा परिवार अतिथि का सम्मान और उनका सत्कार करेगा ! यह जानने के लिए चितरंजन के पिता जी ने तय किया की वो अपने परिवार की परिक्षा लेंगे ! एक रात्रि जब उनका परिवार भीषड़ ठंड में गहरी नींद में सो गया तब उन्होंने आधी रात में खुद अतिथि बनकर अपने घर के दरवाजे पर दस्तक दी और आवाज बदल कर उन्होंने आवाज लगाई ” मैं बहुत भूखा हूँ , सुबह से कुछ भी नहीं खाया है इस भीषड़ ठंड में अगर कुछ खाने को मिल जाता तो बड़ी कृपा हो जाती !
ठंड बहुत ही भीषड़ थी और सभी अपने -अपने रजाई में सो रहे थे ऐसे में सभी आवाज सुनकर भी द्वार पर नहीं गए चितरंजन के पिता जी के परिवार के एक सदस्या ने भीतर से ही जवाब दिया की इतनी रात को अब तुम्हे कौन भोजन देगा , जाओ कही और किसी और घर पर भोजन मांगो !
यह सुनकर चितरंजन के पिता जी बहुत दुखी हुए और उनका उनके परिवार के प्रति जो विश्वास था वो टूट गया ! द्वार पे खड़े ही बहुत दुखी मन से उन्होंने अपना परिचय दिया ! घर वाले उनकी आवाज सुनकर भागे और द्वार पर आकर खड़े हो गए ! चितरंजन के पिता जी ने कहा ” मेरे घर पर आये किसी अतिथि का इस तरह से अपमान होगा मैं कभी ऐसा सोचा ही नहीं था ! मेरे घर के द्वार से कोई अतिथि इस तरह से अगर निराश होकर वापस गया है तो इसमें मेरा ही दोष है !
उनको अपने परिवारजनों के इस तरह बर्ताव से बहुत गहरा सदमा लगा , उन्हें लगा की उनके द्वारा दी गयी शिक्षा किसी काम की नहीं है और द्वार पे हुए अतिथि का अपमान होने का प्रायश्चित करने के लिए उसी वक़्त द्वार से वन के लिए निकल गए और पाँच वर्ष तक बाहर ही घूम – घूम का अपना जीवन यापन करते रहे !
कहानी का सार:-
घर पर आया हुआ अतिथि बहुत ही सौभाग्य से आता है हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी अतिथि को देवता का रूप कहा गया है , इसलिए घर पे आये हुए अतिथि का अपनी झमता अनुसार जरूर सम्मान करे !